लोक अदालतों की भूमिका | Role of lok Adalats in Indian Judical System

लोक अदालतों की भूमिका | Role of lok Adalats in Indian Judical System

 

नमस्कार दोस्तों ओस पोस्ट में हम जानेंगे, लोक अदालतों की भूमिका (Role of lok Adalats in Indian Judical System), अदालतों की प्रमुख विशेषताएँ क्या है, लोक अदालतों का आयोजन (Setting-up of Lok Adalats), लोक अदालतों का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction of Lok-Adalats ) और लोक अदालत की शक्तियाँ (Powers of Lok Adalat) क्या है। 

 

लोक अदालतों की भूमिका (Role of lok Adalats in Indian Judical System) – यह एक मूहत्वपूर्ण और पुसानी कहावत है कि विलम्न से मिला न्याय नहीं के बराबर होता है।” अर्थात विलम्ब न्याय को विफल कर देता है । न्याय वही है जो समय पर मिले। वर्तमान में स्थिति-विपरीत है । न्याय में बहुत विलम्ब होने लगा है और न्याय मिल पाना अधिक खर्चीला भी हो गया है । ऐसी स्थिति में न्याय के प्रति आम व्यक्ति की आस्था कमजोर होने लगती है।

 

सस्ता, शीघ्र और सुलभ न्याय वादकारियों को उपलब्ध क्राये जाने की दिशा में अनेक सार्थक प्रयास किये गये हैं न्यायालयों ने भी विलम्ब से मिल रहे न्याय के प्रति चिन्ता जताते हुए शीघ्र और सुलभ न्याय मिले, इसके लिए लोक अदालतों का आयोजन देश के सभी न्यायलयों का फैसंला पक्षकारों में आपसी- सुलह व समझौते के आधार पर किया जाता है। इससे न सिर्फ न्यायालयों में मुकदमों का बोझ कम होता है, बल्कि पक्षकारों के मध्य सम्बन्धों में भी मधुरता आती है।

 

लोक अदालतों की विशेषताएँ (Characteristics of Lok Adalats) 

 

लोक अदालतों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(i) इनमें मामलों का निपटारा पक्षकारों में आपसी संमझौतों या राजीनामों के द्वारा किया जाता है।

(ii) इनमें पक्षकारों के बीच कटुता को दूर कर उनमें मधुर सम्बन्ध स्थापित किये जाने का प्रयास किया जाता है।

(iii) इनमें खर्च भी नाममात्र का होता है अर्थात्ं इनमें मामलों के निपटारे में कोई खर्च नहीं होता।

(iv) मामलों का निपटारा शीघ्रता से हो जाता है। अनावश्यक विलम्ब नहीं होता।

(v) राजीनामें में न्यायिक अधिकारी, शिक्षक, समाजसेवी आदि अपनी भूमिका निभाते है।

 

इस प्रकार लोक अदालत सस्ते, सुलभ और शीघ्र न्याय का एक सशक्त मंच है। हमारे देश में यह व्यवस्था, कोई नई नहीं है। “पंच परमेश्वर” की न्याय-व्यवस्था इसी का रूप है। गाँवों में आज भी “चौपाल पर न्याय” की व्यवस्था प्रचलित है। यह एक ऐसी न्यायिक प्रक्रिया है जिसमें न किसी पक्ष की जीत होती है और न किसी की हार । इसीलिए यह कहा जाता है कि-“लोकं अदालत का सार, न किसी की जीत न किसी की हार।”

 


लोक अदालतों को विधिक स्वरूप प्रदान करने के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 पारित कर उसमें लोक अदालतों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इस अधिनियम की धारा 19, 20. 21. और 22 के उपबन्ध लोक अदालतों से सम्बंधित हैं।

 

लोक अदालतों का आयोजन (Setting-up of Lok Adalats)

अधिनियम में यह उपबंध किया गया है कि उच्चतम न्यायालय विधिक सेवा की धारा 19 समिति, राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण: उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या तालुका विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा ऐसे स्थान और अन्तराल पर लोक अदालतों का आयोजन किया जा ‘सकता है, जहाँ वह ऐसा करना उचित समझे । ऐसा लाक अदालतों में सेवारत या सेवानिवृत्ति न्यायिक अधिकारी तथा अन्य व्यक्ति होंगे जो ‘समय-समय पर सम्बन्धित प्राधिकरण द्वारा निर्धारित किये जायें उनकी योग्यतायें और शर्ते भी समिति या प्राधिकरण द्वारा सुनिश्चित की जायेंगी लोक अदालतों में ऐसे व्यक्तियों को स्थान दिया जाता है जो विधि, न्याय, कला, साहित्य संस्कृति, साजसेवा, संहकारिता आदि के क्षेत्र में विशिष्ट ज्ञान या अनुभव रखते हों। लोक अदालतों में महिलाओं को भी स्थान प्रदान किया जाता है।

 

लोक अदालतों का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction of Lok-Adalats )

 

इन लोक अदालतों को उन सभी मामलों को राजीनामों या समझौतों ‘द्वारा निपटाने का अधिकार होता है जो किसी न्यायालय में विचाराधीन हैं या’ जो विवाद अभी तक न्यायालय में नहीं पहुँचे हैं। एक प्रकार से यह “विचारण पूर्व समझौते” की प्रक्रिया है। लेकिन लोंक अदालतों द्वारा ऐसे आपराधिक मामलों का निपटारा नहीं किया जा. सकता है जो किसी विधि के अधीन राजीनामा योग्य (Compoundable) नहीं हैं।

अब्दुल हसन बनाम दिल्ली विद्युत बोर्ड A.I.R. 1999 Delhi.88 में दिल्ली उच्च न्यायालय. ने लोक अदालतों के सम्बन्ध में निर्णय देते हुए कहा है कि विभिन्न न्यायालयों में बडी संख्या में मुकदमें विचांराधीन हैं। इनका निपठारा लोक अदालतों के माध्यम से किया जाये। इसके अंलावा विभिन्न सरकारी’ विभागों में भी स्थायी लोक अदालतें स्थापित की जानी चाहिये न्यायालय ने कहा कि भारत के नागरिक और भारत सरकार तथा भारत सरकार और इसके कर्मचारियों के बीच होने वाले विवादों का निपटारा स्थायी लोक अदालतों के माध्यम से ही निपटाया जाना चाहिए।

 

इस सम्बन्ध में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा आवश्यक दिशा निर्देश जारी करते हुए दिल्ली .विद्युत बोर्ड, दिल्ली विकास प्राधिकरण, दिल्ली नगर निगम, महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड. जनरल इंश्योरेंस कारपोरेशन ऑफ इण्डिया तथा अन्य इकाइयों में इस तरह की स्थायी लोकं अदालतें लगाने और लम्बित मामलों को निपटाने को कहा है।

 

लोक अदालत द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया (Procedure Applied by Lok’ Adalat)

 

विधिक सेवा प्राघिकरण अधिनियम की धारा 20 उपबंधित किया गया है कि यदि कोई पक्षकार यह चाहे कि उसके मामले का निपटारा लोक अदालत के माध्यम से हो ऐसा पक्षकार उस न्यायालय में इस आशय का आवेदन कर सकेगा कि उसका मामला लोक अदालत में भेजा जायें। जबं न्यायालय को यह संभाधीन हो जाता है कि वह मामला लोक अदालत में निपटाये जाने योग्य है तो वह उसे लोक अदालत को भेजने का निर्देश दे सकेगा। लेकिन मामले को लोक अदालत भें भेजने का निर्देश देने से पूर्व विपक्ष को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना आवश्यक होगा।

यह समस्त प्रक्रिया पूर्ण हो जाने पर जब मामला लोक अदालत में आता है तब लोक अदालत में उस मामले की सुनवाई प्रारम्भ की जायेगी दोनों पक्षकारों को सुनवाई का तथा उनमें समझौता या राजीनामा कराने का प्रयास किया जायेगा। अधिनियम की धारा 20 (4) के अन्तर्गत मामलों का निपटारा करतेसमय लोक अदालत के सदस्य “न्याय, समता और शुद्ध अन्तकरण” से कार्य करते हैं। तथा “प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन करते हैं।

 

यदि इस प्रकार के प्रयास के बावजूद भी पक्षों के बीच राजीनामा या समझौता नहीं हो पाता है तो वह मामला पुनः उस न्यायालय को भेज दिया जाता है जहाँ से वह प्राप्त हुआ था। वह न्यायालय उस मामले में पुनः उसी स्तर से आगे कार्यवाही के लिए प्रयासरत होगा जिस स्तर में यह मामला लोक अदालत में भेजा गया था। यदि ऐसे मामले में पक्षों के बीच राजीनामा हो जाता है तो अधिनियम की धारा 21 के अन्तर्गत लोक अदालत का आदेश सिविल न्यायालय की डिक्री या अन्य सक्षम न्यायालय के आदेश का प्रभाव रखेगा और सभी पक्षकार उस आदेश या डिक्री से बाध्य होंगे।

लोक अदालत की शक्तियाँ (Powers of Lok Adalat)

 

अधिनियम की धारा 20 व 21 के उद्देष्य के लिए लोक अदालतों को सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अन्तर्गत एक ‘सिविल न्यायालय माना गया है और इन्हें निम्नलिखित के सम्बन्ध में सिविल न्यायालय की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं-

 

(i) साक्षियों को समन करना और उनका शपथ पर परीक्षण करना।
(ii) दस्तावेजों का प्रकटीकरण और प्रस्तुतीकरण,
(iii) शपथपत्रों पर साक्ष्य का ग्रहण,
(iv) लोक अभिलेख मॅगवाया जाना; आदि।

 

लोक अदालतों की कार्यवाही को भारतीय दण्ड संहिता, 1960 की धारा 193, धारा 219 और 228 कै अन्तर्गत “न्यायिक कार्यवाहियाँ” माना गया है और लोक अदालतों को दण्ड प्रक्रिया ‘संहिता, 1973 – को धारा 195 और अध्याय 26 के अर्थ के अन्तर्गतं “दीवानी न्यायालय” का दर्जा दिया गया है।

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