प्रत्याभूति तथा क्षतिपूर्ति की संविदा में अन्तर बताइये

प्रत्याभूति की संविदा की परिभाषा कीजिये । प्रत्याभूति तथा क्षतिपूर्ति की संविदा में अन्तर बताइये। Define contract of guarantee and distinguish the contract of guarantee from the contract of indemnity.


संविदा अधिनियम की धारा 124 में क्षतिपूर्ति की संविदा को परिभाषित किया गया है। इस धारा के अनुसार, “वह संविदा जिसके द्वारा एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को स्वयं वचनदाता के आचरण से या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से उस दूसरे पक्षकार को हुई हानि बचाने का वचन देता है, क्षतिपूर्ति की संविदा कहलाती है।” जैसे क ऐसी कार्यवाहियों के परिणामों के लिए जो ग 500 रुपये की अमुक राशि के सम्बन्ध में ख के विरुद्ध चलाये, ख के क्षतिपूर्ति करने की संविदा करता है वह क्षतिपूर्ति की संविदा है।

 

इस धारा के अनुसार क्षतिपूर्ति की संविदा से तात्पर्य ऐसी संविदा से है जिसके द्वारा एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को अपने आचरण से या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से हुई हानि से उस दूसरे पक्षकार को बचाने की प्रतिज्ञा करता है। जो व्यक्ति बचाने की संविदा करता है उसे क्षतिपूर्तिदाता और जिसकी प्रतिज्ञा की जाती है उसे क्षतिपूर्तिधारा कहते हैं। इस प्रकार क्षतिपूर्ति की संविदा में क्षतिपूर्तिदाता यह प्रतिज्ञा करता है कि वह क्षतिपूर्तिधारी कोअपने आचरण या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से होने वाली हानि से बचायेगा।

प्रत्याभूति की संविदा की परिभाषा

प्रत्याभूति की संविदा की परिभाषा धारा 126 में दी गयी है जो कि इस प्रकार है-

 

“प्रत्याभूति की संविदा किसी पर व्यक्ति द्वारा व्यतिक्रम की दशा में उसके वचन का पालन या उसके दायित्व का निर्वहन करने की संविदा है। वह व्यक्ति, जो प्रत्याभूति देता है “प्रतिभू” कहलाता है, वह व्यक्ति,जिसके व्यतिक्रम के बारे में प्रत्याभूति दी जाती है, मूलऋणी” कहलाता है और वह व्यक्ति, जिसको प्रत्याभूति दी जाती है “लेनदार” कहलाता है।

 

प्रत्याभूति या तो मौखिक या लिखित हो सकेगी।

प्रत्याभूति की संविदा से तात्पर्य किसी पर व्यक्ति द्वारा व्यतिक्रम (चूक) की दशा में उसकी प्रतिज्ञा (वचन) का पालन या उसके दायित्व को निर्वहन करने की संविदा से है। इस प्रकार प्रत्याभूति की संविदा में तीन पक्षकार होते हैं। एक व्यक्ति एक दूसरे व्यक्ति को यह वचन देता है कि यदि तीसरा व्यक्ति अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता है या अपने दायित्व का निर्वहन नहीं करता है तो वह उसकी प्रतिज्ञा का पालन करेगा या उसके दायित्व का निर्वहन करेगा।

 

उदाहरण के लिए, क ख से 5000 रुपये ऋण के रूप में लेता है और प्रतिज्ञा करता है कि वह उसे एक वर्ष के अन्दर वापस कर देगा। ग, ख को वचन देता है कि यदि क अपनी प्रतिज्ञा को पूरा नहीं करता है। तो वह उसकी प्रतिज्ञा को पूरा करेगा। यह प्रत्याभूति की संविदा है। जो व्यक्ति प्रत्याभूति देता है उसे प्रतिभू कहते है, जिस व्यक्ति के व्यतिक्रम के सम्बन्ध में प्रत्याभूति दी जाती है उसे मूलऋणी तथा जिस व्यक्ति को प्रत्याभूति दी जाती है उसे लेनदार कहते हैं।

प्रत्याभूति संविदा के आवश्यक तत्व


(Essential Elements) एक वैध प्रत्याभूति के लिए निम्नलिखित तत्वों या शर्तों का होना आवश्यक है।


(1) संविदा का स्वरूप-प्रत्याभूति की संविदा लिखित अथवा मौखिक तथा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष किसी भी प्रकार की हो सकती है।
(2) तीन संविदा-प्रत्याभूति की संविदा में एक साथ तीन संविदा होती हैं । मूल ऋणी एवं ऋणदता के बीच, प्रतिभू और ऋणदाता के बीच और प्रतिभू तथा मूल ऋणी के बीच ।
(3) पक्षकारों की संख्या-प्रत्याभूति की संविदा में तीन पक्षकार होते हैं-प्रतिभू (Surety), मूल ऋणी (Principal Debtor) एवं ऋणदाता (Creditor)।
(4) प्रतिफल होना आवश्यक-राम नारायण बनाम लेफ्टीनेन्ट कर्नल हरिसिंह के केस में राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा “बिना प्रतिफल के गारण्टी की संविदा व्यर्थ है।” धारा 127 के अनुसार मूल ऋणी के लाभ के लिए ऋणदाता द्वारा किया गया कोई कार्य अथवा दिया गया कोई वचन प्रतिभू की गारण्टी देने के लिए पर्याप्त प्रतिफल हो सकता है।
उदाहरण-

(i) B, A से कुछ माल उधार बेचने की प्रार्थना करता है। A इस शर्त पर कि अगर C गारण्टी दे तो प्रार्थना स्वीकार है। A द्वारा उधार माल देने के वचन में C मूल्य को चुकाने की गारण्टी देता है। यह C के वचन के लिए पर्याप्त प्रतिफल है ।

(ii) A, B को उधार माल बेचता है और सुपुर्द करता है। बाद में C बिना प्रतिफल के B की त्रुटि की दशा में उसका मूल्य चुकाने को सहमत हो जाता है । यह करार (प्रतिफल के अभाव में) व्यर्थ है। क्योंकि A ने C की गारण्टी पर B को माल उधार नहीं बेचा है। बल्कि पहले ही बेच चुका है।


(5) दायित्व का उदय-यदि मूल ऋणी अपने दायित्व को पूरा कर देता है तो प्रतिभू का दायित्व भी समाप्त हो जाता है। अगर मूल ऋणी अपना दायित्व पूरा नहीं करता तो प्रतिभू का दायित्व उत्पन्न होता है । उच्चतम न्यायालय ने (सन् 1986) पोरबन्दर को-आपरेटिव बैंक बनाम भानजी लबजी के केस में कहा कि अगर दो साझेदार फर्म के ऋणी की गारण्टी देते हैं और फर्म के लिए उत्तरदाय होंगे जिन्होंने गारण्टी दी थी न कि फर्म के सभी साझेदार।

(6) ऋणदाता द्वारा तथ्यों को प्रकट करना-ऋणदाता का कर्त्तव्य है कि वह प्रतिभू को उस समस्त तथ्यों को प्रकट कर दे जो मूल ऋणी के बारे में जानता है और जिनसे दायित्व प्रभावित हो सकता है। यदि ऋणदाता ऐसे. तथ्यों को छिपाता है तो प्रतिभू की इच्छा पर ऐसी संविदा व्यर्थनीय होगी।

(7) अनुबन्ध करने की क्षमता-ऋणदाता और प्रतिभू दोनों ही संविदा करने के लिए सक्षम होने चाहियें। मूल ऋणी में भी संविदा को पालन करने की क्षमता होनी चाहिये अन्यथा वह उत्तरदायी नहीं होगा। यदि मूल ऋणी और ऋणदाता के बीच संविंदा, मूल्य ऋणी की इच्छा पर व्यर्थनीय है तो भी प्रतिभू का दायित्व कम नहीं हो सकता।
उदाहरण-

A, B को (जो अवयस्क है) 1,000 रुपये का ऋण देता है। C, B की त्रुटि की स्थिति में इस धन को A को चुकाने की प्रत्याभूति (गारण्टी) देता है। यहाँ c तथा A के

(8) प्रतिभू के दायित्व-प्रत्याभूति (गारण्टी) की संकि में प्रति अथवा गारण्टी देने का दायित्व गौण होता है और प्राथमिक दायित्व मूल ऋण का ही होता है ।

(9) मूल ऋणी द्वारा अनुरोध आवश्यक मूल ऋणी द्वारा गारण्टी देने के लिए प्रतिभू से निवेदन किया जाना चाहिये।

(10) ऋण अथवा दायित्व होना-गारण्टी किसी ऋण या दायित्व के प्रति ही दी जा सकती है। अतः जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक गारण्टी की संविदा भी दायित्व में नहीं आयेगी।

(11) वैध संविदा के सभी लक्षण-प्रत्याभूति की संविदा में वे सभी तत्व होने चाहिये जो एक वैध संविदा के लिए आवश्यक है।

 

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