चिरगामी प्रत्याभूति क्या है? यह कब अपखंडित की जा सकती है?

चिरगामी प्रत्याभूति क्या है? यह कब अपखंडित की जा सकती है | What is continuing guarantee ? When can it be revoked ?


चिरगामी प्रत्याभूति क्या है? यह कब अपखंडित की जा सकती है


 

चिरगामी प्रत्याभूति (Continuing Guarantee) (धारा 129) :- प्रत्याभूति जो संव्यवहारों की किसी श्रृंखला तक विस्तृत होता है, “चिरगामी प्रत्याभूति” कहलाती है। अत: एक प्रत्याभूति या तो साधारण प्रत्याभूति होगी या चिरगामी प्रत्याभूति हो सकती है । साधारण प्रत्याभूति की स्थिति में प्रतिभू केवल एक संव्यवहार के सम्बन्ध में दायी (Liable) होता है, किन्तु चिरगामी प्रत्याभूति की स्थिति में किन्हीं क्रमिक व्यवहारों के सम्बन्ध में दायित्वाधीन होता है जो उसके विषय-क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं।

 

उदाहरण-

 

क) अ इस प्रतिफलार्थ कि ब, स को ब की जमींदारी में भाटक (Rent) संचित करने के लिए नौकरी पर रखेगा, ब से प्रतिज्ञा करता है कि इन भाटकों (Rents) का उचित संचयन करने और देनगी करने के लिए वह पाँच हजार तक की रकम के लिए जिम्मेदार होगा। यह चिरगामी प्रत्याभूति (Continuing Guarantee) है

(ख) अ चाय के व्यापारी ब को, किसी चाय के लिए जिसको कि वह स को समय-समय पर प्रदाय करें, 400 पौण्ड तक की रकैम की देनगी करने के लिए प्रत्याभूति देता है। ब, स को उपुर्यक्त 400 पौण्ड के मूल्य की चाय प्रदान करता है और स उसके लिए ब को देनगी कर देता है, तत्पश्चात् ब स को 600 पौण्ड के मूल्य की चाय प्रदाय करता है। स देनगी करने में असफल रहता है। अ द्वारा दी गई प्रत्याभूति चिरगामी प्रत्याभूति थी और तद्नुसार वह 400 पौण्ड तक ख को दने के लिए दायित्वाधीन है।

(ग) अ, ब द्वारा स को परिदत्त किये जाने वाले आटे के पाँच बोरों के मूल्य की, जो कि एक महीने में दिया जाना है, देनगी की जाने के लिए ब की प्रत्याभूति देता है। ब, स को पाँच बोरे परिवृत्त करता है। स उनके लिए देनगी कर देता है। तत्पश्चात् ख, ग को चार बोरे देता है, जिनकी देनगी स नहीं करता है। अ द्वारा दी गयी प्रत्याभूति चिरगामी प्रत्याभूति नहीं थी और तद्नुसार वह उन चार बोरों के मूल्य को देने के लिए दायित्वाधीन नहीं है। किन्तु यह विनिश्चय करना सदैव आसान नहीं है कि कोई प्रत्याभूति किसी विशिष्ट संव्यवहार तक सीमित है अथवा संव्यवहार की एक श्रृंखला तक विस्तृत है । कठिन मामलों में सदैव उचित मार्ग पक्षकारों के आशय को निश्चित करना होता है और आशय का सर्वोत्तम निश्चय लिखत के समय पक्षकारों की सम्बन्धित स्थिति को देख कर दिया जाता है।

 

चिरगामी प्रत्याभूति का अपखण्डन

 

धारा 130 के अनुसार चिरगामी प्रत्याभूति को प्रतिभू ऋणदाता को सूचना देकर भविष्य के संव्यवहारों के बारे में किसी समय अपखण्डित कर सकेगा। धारा 130 से स्पष्ट है कि प्रतिभू भविष्य के संव्यवहारों के प्रति दी गयी गारण्टियों को ही अपखण्डित कर सकता है, परन्तु वह भूतकाल में किये गये संव्यवहारों के लिए उत्तरदायी रहेगा।

 

उदाहरण-

 

(क) स के लिए विनिमय-पत्रों को अ की प्रार्थना पर ब द्वारा बदला लेकर चुका देने के प्रतिफलार्थ अ, ब को ऐसे सब पत्रों पर 6,000 रुपये तक शोध्य देनगी करने के लिए बारह महीने के लिए प्रत्याभूति देता है। ब, अ के लिए 5,000 तक के विनिमय पत्रों के बट्टे लेकर चुकाता है । तत्पश्चात् तीन महीनों का अन्त होने पर अ उस प्रत्याभूति को अपखण्डित कर देता है। यह अपखण्डन अ को किसी पश्चात्वर्ती बट्टा लेकर देनगी के लिए ब के प्रति सारे दायित्व से उन्मुक्त कर देता है। किन्तु अ स द्वारा चूक किये जाने पर 5,000 रुपयों को ब को देने के दायित्वाधीन है।

(ख) अ, ब को 20,000 रुपये तक की यह प्रत्याभूति देता है कि स उन सब विनिमय-पत्रों की देनगी, जो कि ब उसके नाम लिखेगा, करेगा। स उस विपत्र को प्रतिग्रहीत करता है। अ अपखण्डन की सूचना देता है। ग उस विनिमय-पत्र को उसकी परिपक्वता पर अनादृत कर देता है । अ अपनी प्रत्याभूति के लिए दायित्वाधीन है। इस उदाहरण में अपखण्डन इसलिए वैध नहीं है क्योंकि यह केवल एक संव्यवहारों का मामला है न कि चिरगामी प्रत्याभूति का।

 

चिरगामी प्रत्याभूति का प्रतिभू की मृत्यु द्वारा अपखण्डन

 

अधिनियम की धारा 134 के अनुसार, प्रतिभू की मृत्यु जिरगामी प्रत्याभूति को, प्रतिकूल संविदा के अभाव में जहाँ तक कि उसका भविष्य के संव्यवहारों से सम्बन्ध है, अपखण्डित कर देती है।”

 

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