IPC Section 99 Kya Hai - What is IPC 99

IPC Section 99 Kya Hai – What is IPC 99

 

IPC Section 99 Kya Hai – What is IPC 99




IPC Section 99:- कार्य, जिनके विरुद्ध प्रावडेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है-यदि कोई कार्य, जिससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती, सद्भावपूर्वक अपने पदाभास में कार्य करते हुए लोक सेवक द्वारा किया जाता है या किए जाने का प्रयत्न किया जाता है, तो उस कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है, चाहे वह कार्य विधि अनुसार सर्वथा न्यायानुमत न भी हो।

– यदि कोई कार्य, जिससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती, सद्भावपूर्वक अपने पदाभास में कार्य करते हुए लोक सेवक के निदेश से किया जाता है, या किए जाने का प्रयत्न किया जाता है, तो उस कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है, चाहे वह निदेश विधि-अनुसार सर्वथा न्यायानुमत न भी हो। ।

– उन दशाओं में, जिनमें सुरक्षा के लिए लोक प्राधिकारियों की सहायता प्राप्त करने के लिए समय है, प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है।

इस अधिकार के प्रयोग का विस्तार- किसी दशा में भी प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार उतनी अपहानि से अधिक अपहानि कारित करने पर नहीं है, जितनी प्रतिरक्षा के प्रयोजन से करनी आवश्यक है।

IPC Section 99 स्पष्टीकरण 1-

कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक द्वारा ऐसे लोक सेवक के नाते किए गए, या किए जाने के लिए प्रयतित, कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं होता, जब तक कि वह यह न जानत हो, या विश्वास करने का कारण न रखता हो कि उस कार्य को करने वाला व्यक्ति ऐसा लोक सेवक है।

IPC Section 99 स्पष्टीकरण 2-

 

कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक के निदेश से किए गए, या किए जाने के लिए, प्रयतित, किसी कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं होता, जब तक कि वह यह न जानता हो, या विश्वास करने का कारण न रखता हो, कि उस कार्य को करने वाला व्यक्ति ऐसे निदेश से कार्य कर रहा है, या जब तक कि वह व्यक्ति इस प्राधिकार का कथन न कर दे, जिसके अधीन वह कार्य कर रहा या यदि उसके पास लिखित प्राधिकार है, जो जब तक कि वह ऐसे प्राधिकार को मांगे जाने पर पेश न कर )


टिप्पणी


धारा (IPC) 99 (IPC Section 99) वह सीमा निर्धारित करती है जिसके अन्तर्गत प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया जाना चाहिये।

मदन बनाम म० प्र० राज्य के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का तर्क अनुमानों और अटकलों पर आधारित नहीं हो सकता है। किसी अभियुक्त को शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है या नहीं, इस पर विचार करते समय यह कि क्या हमलावरों पर उसे कठोर और घातक चोट पहुंचाने का अवसर था या नहीं, यह सुसंगत नहीं है। किसी अभियुक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है या नहीं यह पता लगाने के लिये सम्पूर्ण घटना का सतर्कतापूर्वक परीक्षण करना चाहिये और सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिये।

 


ऐसे मामले में जहां अभियुक्तगण पर मृतक को लाठी से प्रहार कर घायल करना आरोपित है और अपीलाण्ट अभियुक्तों द्वारा अपनी प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का तर्क दिया जाता है और इस बात का साक्ष्य था कि किन्हीं सीमाओं तक अपीलाण्ट अपनी सम्पत्ति की रक्षा और बचाव में अधिकार का प्रयोग कर रहे थे |

परन्तु उसके बाद उन्होंने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया और इस कारण वे वहां भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के बजाय धारा 304 के भाग-I के अधीन दोषसिद्ध किये जाने के द्वारा दायित्वाधीन होंगे।

भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 100 एवं 103 में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के इस्तेमाल के दौरान किसी दूसरे व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के अधिकार का उल्लेख किया गया है। जब किसी व्यक्ति के जीवन या उसकी सम्पत्ति को एक दूसरे व्यक्ति के आपराधिक अतिचार से खतरा उत्पन्न होता है तो इस अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है। किन्तु इस अधिकार के प्रयोग पर यह प्रतिबन्ध कि इसके प्रयोग के पूर्व लोक प्राधिकारियों की सहायता ली जानी चाहिये उस समय बाधा के रूप में प्रतीत होता है जबकि खतरा प्रतिरक्षक के दरवाजे पर दस्तक दे रहा हो। विधि पर जमी इस परत को हटाया जाना चाहिये। प्रतिरक्षक को अपनी परिसीमा के अन्दर रहते हुये, सन्निकट या आसन्न खतरे को रोकने का अधिकार मिलना चाहिये। लोक प्राधिकारियों द्वारा प्रदत्त सहायता आवश्यकता पड़ने पर न तो शीघ्रातिशीघ्र मिलनी है और न ही मिलने की सम्भावना रहती है।

विधि द्वारा अभ्यारोपित प्रतिबन्ध की कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही मृत्यु कारित करने का अधिकार प्रदान किया जा सकता है, जैसे मृत्यु या घोर उपहति कारित होने की सम्भावना की विस्तृत रूप में व्याख्या की जानी चाहिये।



लोक-सेवकों के कार्य-(खण्ड -1)

 

एक लोक-सेवक द्वारा किये गये कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त होता यदि निम्नलिखित शर्ते पूरी हो रही हों।

(1) कार्य लोक-सेवक द्वारा किया जाता है या किये जाने का प्रयत्न किया जाता है;

(2) कार्य सद्भावपूर्वक किया गया हो;

(3) कार्य लोक-सेवक द्वारा अपने पदाभास के अन्तर्गत किया गया हो;

(4) कार्य ऐसा है जिससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती।

(5) कार्य विधि के अनुसार न्यायसंगत नहीं भी हो सकता है;

(6) यह विश्वास करने के लिये युक्तियुक्त आधार होना चाहिये कि कार्य लोक-सेवक द्वारा तथा उसके पदाभास के अन्तर्गत किया गया हो।

उपरोक्त परिसीमा में अन्तर्विष्ट सिद्धान्त यह है कि सामान्यतया यह प्रकल्पना की जाती है कि लोकसेवक सदैव विधि के अनुरूप कार्य करेगा। द्वितीयत: यह कि लोक-सेवक को उसके कर्तव्य के निष्पादन में, वहाँ भी जहाँ वह गलती कर रहा हो, समाज के फायदे के लिये सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिये। इस धारा IPC Section 99 के खण्ड 1 को इसी धारा में वर्णित स्पष्टीकरण 1 के साथ सदैव पढ़ा जाना चाहिये। इस धारा में उन व्यक्तियों को प्रतिरक्षित करना आशयित है जो यह न जानते हुये कार्य करते हैं कि जिस व्यक्ति के साथ संव्यवहार कर रहे हैं वह एक लोकसेवक है।

यह खण्ड वहाँ प्रवर्तित होता है जहाँ एक लोकसेवक अपने अधिकार के प्रयोग में अनियमितता बरतता है न कि वहाँ जहाँ वह अपने अधिकार-क्षेत्र से बाहर कार्य करता है। एक प्रकरण में जहाँ कि एक पुलिस अधिकारी सद्भावपूर्वक अपने पदाभास के अन्तर्गत कार्य करते हुये एक व्यक्ति को कैदी बनाता है किन्तु बिना आदेश के, कैदी को अधिकारी के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार नहीं प्राप्त है। किन्तु यदि लोकसेवक का कार्य विधिविरुद्ध है तो उसके विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है। इसी प्रकार एक पुलिस अधिकारी जो बिना लिखित व्यादेश के छानबीन करता है अपने पदाभास (colour of his office) के अन्तर्गत कार्य करता हुआ नहीं कहा जायेगा।”

 


एक प्रकरण में एक व्यक्ति की सम्पत्ति को सदोषपूर्ण कुर्क कर लिया जाता है, जैसे वह सम्पत्ति किसी फरार व्यक्ति की हो तथा इस कुर्की का यथार्थ स्वामी द्वारा प्रतिरोध किया जाता है। यह निर्णय दिया गया कि प्रतिरोध को प्राइवेट प्रतिक्षा के अधिकार के वैध प्रयोजन के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि पुलिस अधिकारी सद्भाव में अपने पदाभास (colour of his office) के अन्तर्गत कार्य कर रहा था और यदि यह भी मान लिया जाये कि कुर्की का आदेश समुचित रूप में नहीं दिया गया था तो यह अपने आप में प्रतिरक्षा का पर्याप्त आधार नहीं होगा। इसी प्रकार यदि कुकी से उन्मुक्त सम्पत्तियों को कुर्क कर लिया जाता है तो प्रतिरोध न्यायसंगत नहीं होगा।

कुंवर सिंह के वाद में म्युनिसिपल कारपोरेशन के पदाधिकारियों द्वारा संगठित छापा मारने वाली एक पार्टी, जिसका उद्देश्य कारपोरेशन की सीमा के अन्तर्गत बिखरे जानवरों को पकड़ना था, पर उस समय आक्रमण किया गया जब वह पार्टी कुछ जानवरों को पकड़कर मवेशीखाने ले जा रही थी। यह निर्णय दिया गया कि छापा मारने वाली पार्टी का कार्य पूर्णतः न्यायसंगत था और अभियुक्तों को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त था।

एक प्रकरण में जहाँ एक पुलिस अधिकारी बिना खोज वारण्ट (Search warrant) के एक घर में घुसने का प्रयास किया ताकि वह चोरी के माल को बरामद कर सके किन्तु उसका प्रतिरोध किया गया, यह निर्णय दिया गया कि वारण्ट के बिना खोज करते समय भले ही आफीसर का कार्य न्यायसंगत न रहा हो उसके कार्य में बाधा या प्रतिरोध उत्पन्न करने वाले व्यक्ति अपने कार्य को न्यायोचित ठहराने हेतु आफीसर की अवैध प्रक्रिया को आधार नहीं बना सकते, क्योंकि यह नहीं दर्शाया गया था कि अधिकारी बिना सद्भाव के एवं ईर्ष्या से कार्य कर रहा था। यदि एक पुलिस अधिकारी अवैध रूप से जारी वारण्ट को निष्पादित करने का प्रयत्न करता है तो अभियुक्त द्वारा उत्पन्न प्रतिरोध न्यायसंगत होगा।



मृत्यु अथवा घोर उपहति की युक्तियुक्त आशंका–

 

एक लोक-सेवक द्वारा कारित किसी व्यक्ति के विरुद्ध प्रावकेट प्रतिरक्षा का अधिकार केवल उन मामलों तक विस्तारित होता है जिनमें मृत्यु या घोर उपहति लोक-सेवक द्वारा कारित किये जाने की आशंका है। एक प्रकरण में एक एक्साइज इन्सपेक्टर ने एक शस्त्रधारी तस्कर व्यापारी का पीछा किया और उसके नजदीक पहुँचने पर उसे रुकने का आदेश दिया तथा उसे डराने के लिये अपनी पिस्तौल से दो बार गोली चलाया। इस पर तस्कर व्यापारी ने अपनी तलवार निकाल कर उसके जांघ पर प्रहार किया। यह निर्णय दिया गया कि तस्कर व्यापारी को यह विश्वास करने का युक्तियुक्त आधार था कि इन्सपेक्टर मृत्यु या गम्भीर चोट कारित करने का आशय रखता था और उसने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमा का अतिक्रमण नहीं किया।

बिहारी राय बनाम बिहार राज्य के वाद में अभियुक्त द्वारा मृतक पर कुल्हाड़ी से प्रहार करने का आरोप था। घटना अचानक झगड़े के दौरान उत्पन्न हुयी और मृतक के पुत्र ने मृतक को अभियुक्त द्वारा चोट पहुंचाते हुये देखा। उसने चश्मदीद गवाहों की उपस्थिति के बारे में स्पष्ट बयान दिया है। प्रतिपक्ष द्वारा प्राइवेट प्रतिरक्षा के तर्क को सिद्ध करने हेतु कोई अकाट्य साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। अतएव, अभियुक्त की भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304, भाग-I के अधीन दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी और अभियुक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा के आधार पर बचाव को मान्य नहीं किया गया।

इस मामले में यह भी स्पष्ट किया गया कि स्वेच्छा से मृत्यु कारित करने तक के प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का तर्क देने हेतु अभियुक्त द्वारा यह दर्शाना आवश्यक है कि परिस्थितियां ऐसी थीं जिसमें उसे या तो मृत्यु या घोर उपहति कारित किये जाने का खतरा आसन्न था। पूरी घटना का पूरी सावधानी से और सही परिप्रेक्ष्य में परीक्षण किया जाना चाहिये।

 

इस अधिकार के प्रयोग हेतु यह युक्तियुक्त नहीं है कि क्या अभियुक्त द्वारा हमलावरों पर कठोर और घातक चोट पहुंचाने का अवसर हो सकता था या नहीं। यह तर्क मात्र अनुमानों और अटकलों पर आधारित नहीं कर जा सकता है। आगे यह भी कि अभियुक्त को पहुंची चोटों का उचित स्पष्टीकरण का अभाव भी एक महत्वपूर्ण परिस्थिति है। परन्तु मात्र मामूली चोटों का स्पष्टीकरण अभियोजन द्वारा न दिया जाना सभी दशाओं में इसके पक्ष को प्रभावित नहीं कर सकता है। यह भी स्पष्ट किया गया कि हमलावर कौन है यह निश्चय करने का सही आधार केवल चोटों की संख्या नहीं है।

अरुण बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह दावा करने के लिये कि क्या प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार मृत्यु कारित करने तक विस्तारित है या नहीं अभियुक्त द्वारा यह दर्शाना आवश्यक है कि ऐसी परिस्थितियां थीं जिससे इस बात के खतरे का युक्तियुक्त आधार था कि अन्यथा उसे मृत्यु या गम्भीर उपहति कारित की जायेगी।

लोक-सेवक के निर्देश से किया गया कार्य (खण्ड 2)

 

खण्ड 2 को इसी धारा के स्पष्टीकरण 2 के साथ पढ़ा जाना चाहिये। लोक-सेवक के निर्देश से किसी व्यक्ति द्वारा किये गये किसी कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं है। यदि निम्नलिखित शर्ते पूरी हो जाती हैं

(1) कार्य लोक-सेवक के निर्देश से किया गया या किये जाने का प्रयत्न किया गया।

(2) कार्य सद्भाव में किया गया हो।

(3) ऐसा लोक सेवक पदाभास के अन्तर्गत कार्य करता हो।

(4) कार्य ऐसा हो जिससे युक्तियुक्त मृत्यु या घोर उपहति कारित होने की आशंका न हो।

(5) यह आवश्यक नहीं है कि निर्देश विधि द्वारा न्यायसंगत ठहराया जाय।

(6) यह विश्वास करने के लिये युक्तियुक्त आधार हो कि कार्य लोक-सेवक के निर्देश से किये गये या निर्देश से कार्य करने वाला व्यक्ति यह स्पष्ट करे कि वह किस आदेश के अन्तर्गत कार्य करता है या यदि उसके पास लिखित आदेश है तो माँग किये जाने पर उसे प्रस्तुत करे।

विधि-अनुसार सर्वथा न्यायानुमत नहीं-

 

“विधि अनुसार सर्वथा न्यायानुमत नहीं” शब्दावली का प्रयोग इस धारा के दोनों ही खण्डों में हुआ है। इससे स्पष्ट होता है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से एक व्यक्ति को वंचित करने के लिये लोक-सेवक द्वारा किया गया कार्य या दिया गया निर्देश विधि अनुसार सर्वथा न्यायानुमत नहीं भी हो सकता। शब्द “सर्वथा” का प्रयोग एक विशिष्ट प्रयोजन की पूर्ति हेतु किया गया है और वह यह है कि पूर्णतः न्यायानुमत कार्यों के लिये इसका प्रयोग आशयित नहीं था। यह उन मामलों तक विस्तारित नहीं होती, जिनमें क्षेत्राधिकार का पूर्ण अभाव है।

 

यह उन मामलों में लागू होती है जिनमें क्षेत्राधिकार की अधिकता है अर्थात् जहाँ इसका अभाव नहीं है तथा जहाँ अधिकारी से उचित ढंग से कार्य करने की अपेक्षा की जाती थी किन्तु उसने अनुचित ढंग से कार्य किया, किन्तु उन प्रकरणों में नहीं जहाँ कार्य सम्भवतः औचित्यपूर्ण ढंग से नहीं किया जा सकता था। इस धारा में लोक-सेवक को दी गयी सुरक्षा उसके यथोचित कर्तव्य निर्वाह में हुई किसी भूल के कारण समाप्त नहीं हो जाती। इस धारा का आशय क्षेत्राधिकार की कमी की पूर्ति करना नहीं है अपितु उसके भ्रमपूर्ण प्रयोग को उपयुक्त बनाना है जहाँ भ्रम सिद्धान्त के बजाय प्रक्रिया को प्रभावित करता है। 

 

लोक-प्राधिकारियों की सहायता-(खण्ड 3)

 

इस धारा के अनुसार प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उस समय अस्तित्ववान नहीं होता जबकि उस पार्टी जिस पर प्रहार हुआ है, को लोक-सेवकों की सहायता लेने का अवसर रहता है। अपनी सम्पत्ति एवं शरीर की सुरक्षा हेतु कोई व्यक्ति विधि को अपने हाथ में लेने का अधिकारी नहीं है, यदि लोक-सेवकों की सहायता प्राप्त कर अपनी क्षतिपूर्ति करने का युक्तियुक्त अवसर उपलब्ध है। किन्तु सरकार से सहायता के लिये कहना केवल तभी आवश्यक है जब कि सहायता तुरन्त एवं उचित रूप में प्राप्त हो सके। ऐसे बहुत से अवसर होते हैं जिनमें एक बुद्धिमान व्यक्ति सरकारी सहायता की माँग करने से इन्कार कर देगा।

 

इसलिये सिद्धान्त रूप में यह नहीं कहा जा सकता कि जहाँ सरकारी सहायता प्राप्त की जा सकती है वहां प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार ही नहीं होता  लोक-सेवकों की सहायता को न्यायोचित ठहराने वाली आशंका सामान्यतया किसी निश्चित सूचना पर आधारित होनी चाहिये कि किस समय तथा किस स्थान पर वह खतरा उत्पन्न होगा। परन्तु विधि का आशय यह नहीं है कि जब किसी व्यक्ति पर आक्रमण हो रहा हो तो वह आक्रमण से अपनी सुरक्षा करने के बजाय लोक-सेवकों से सहायता की माँग करने दौड़े .

यह प्रश्न कि क्या किसी मामले में एक व्यक्ति के पास लोक-सेवकों की सहायता प्राप्त करने का पर्याप्त अवसर है निम्नलिखित चार पूर्व-तथ्यों पर निर्भर करता है-

 

(1) आक्रमण का ज्ञान;

(2) सूचना कितनी स्पष्ट एवं विश्वसनीय है,

(3) लोक-सेवकों को सूचना देने का अवसर तथा

(4) पुलिस आफिसर तथा अन्य अधिकारियों, जिन्हें सूचना दी जा सकती हो, की समीपता। किन्तु ये अवयव उस समय नहीं उत्पन्न होते जबकि आक्रमण अचानक हुआ हो तथा पूर्व-विचारित न हो या जहाँ लोक-सेवकों की सहायता प्राप्त करने की सुविधायें न हों या जहाँ सूचना दी जा चुकी है परन्तु कोई सहायता नहीं प्राप्त होती है। इन परिस्थितियों में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है। 

अयोध्या प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में अभियुक्तों को सूचना मिली कि उनका दुश्मन उन पर आक्रमण करने वाला है। उन्हें यह विश्वास था कि यदि वे अलग-अलग हो जाते हैं तो व्यक्तिगत रूप से उनका पीछा कर उन पर आक्रमण होगा और इस विश्वास के कारण वे एक स्थान पर इकट्ठे होकर आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे। इसी समय उस स्थान पर दुश्मन प्रकट हुये और उनमें से एक ने पिस्तौल से गोली चलाकर अभियुक्तों में से एक को घायल कर दिया। तभी अभियुक्तों में से एक ने भी पिस्तौल से गोली चलाकर उस व्यक्ति को घायल कर दिया जिसने पहले फायर किया था और इसके पश्चात् लाठियों से आक्रमण एवं प्रत्याक्रमण आरम्भ हो गया जिसके फलस्वरूप दोनों पार्टी का एक-एक व्यक्ति मारा गया। यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने के हकदार थे और यह नहीं कहा जा सकता .. कि वे उस अधिकार को पार कर गये। ।

अतिरिक्त अपहानि न्यायोचित नहीं (खण्ड-4)- IPC Section 99

 

IPC Section 99 खण्ड 4 प्रतिपादित करता है कि आत्मरक्षा में कारित अपहानि की मात्रा प्रतिरक्षा हेतु आवश्यक अपहानि की मात्रा से किसी भी हालत में अधिक नहीं होनी चाहिये। ऐसा इसलिये है क्योंकि किसी व्यक्ति को दिया गया अधिकार प्रतिरक्षा का अधिकार है न कि आक्रमणकारी को दण्डित करने का अधिकार। अतः कोई भी कार्य जो दण्डित करने के उद्देश्य से किया जाता है न्यायसंगत नहीं होता है। उदाहरण के लिये एक व्यक्ति जो दिन में अपने पड़ोसी की भूमि को जोतता हुआ पकड़ा जाता है, को पुलिस को सौंपने के उद्देश्य से एक स्थान पर बन्द रखना अवैध है क्योंकि अतिचार (tresspass) ऐसा अपराध नहीं है जिसमें प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया जा सके  ?

 


किन्तु प्राइवेट प्रतिरक्षा में कारित अपहानि की मात्रा नहीं निश्चित की जा सकती। इसे यथार्थतः परिभाषित करना सम्भव नहीं है | आत्म वचाव में कारित अपहानि की मात्रा सदैव आक्रमणकारी द्वारा प्रस्तुत बल की मात्रा के समानुपात में होनी चाहिये जिससे आक्रमणकारी द्वारा प्रयुक्त बल को निवारित किया जा सके। क्या आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग हुआ था ? इस तथ्य के निर्धारण हेतु खण्डित कर्म विषयता (detached objectivity) के परीक्षण को लागू करना अनुपयुक्त होगा। धमकाये गो व्यक्ति द्वारा आत्म रक्षा में प्रयुक्त बल की माप स्वर्ण तौल के अनुरूप नहीं की जानी चाहिये। किन्तु प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का उपयोग दण्ड देने, आक्रमण करने या बदला लेने के प्रयोजन से नहीं किया जा सकता ।

 

देवप्पा ईश्वर शिन्दे बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में बचाव पक्ष की ओर के पाँच लोग चोटहिल हुये। अभियुक्त पक्ष के लोगों को लगी कतिपय चोटों का कोई तात्विक स्पष्टीकरण नहीं था। बचाव पक्ष की ओर लगी दस में से चार चोटें सर में लगी थीं। अभियुक्त पर यह आरोप था कि उसने मृतक के सीने पर चाकू से दो चोटें पहुँचाईं जिससे उसकी मृत्यु हो गयी और तत्पश्चात् चाकू से ही दो चोटें चोटहिल के पीठ पर पहुँचाई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि घटना की शुरुआत और उत्पत्ति ग्रन्थि (genesis) को अभियोजन और बचाव दोनों पक्षों द्वारा छिपाया गया था और दोनों ही पक्षों ने घटना का असत्य विवरण (version) प्रस्तुत किया था।

प्रत्यक्षदर्शी साक्षी जो कि हितबद्ध (interested) साक्षी भी है, के साक्ष्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यह सम्भावित है कि अभियुक्त और अन्य लोगों पर पहले परिवादी पक्ष द्वारा हमला किया गया और तत्पश्चात् उन लोगों ने अपनी शरीर की प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुये उन पर हमला किया, क्योंकि उन्हें घोर उपहति की आशंका थी। अभियुक्त ने मृतक को चाकू से केवल दो चोटें पहुँचाई थीं, अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि उसने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया। उपरोक्त परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अभियुक्त सन्देह का लाभ पाने का अधिकारी है।


– न्यायोचित अपहानि-निम्नलिखित न्यायोचित अपहानि के उदाहरण हैं


(1) ‘अ’ रात्रि में अपने घर की दीवार में सेंध लगाकर घुसते हुये एक चोर को पाता है और जैसे ही वह अपने शरीर को अन्दर घुसाता है, ‘अ’ उसे उसके मुंह को जमीन की तरफ किये हुये पकड़ लेता है ताकि वह और अन्दर न घुस सके तथा इस प्रक्रिया में दम घुटने के कारण उसकी (चोर की) मृत्यु हो जाती है।

(2) ‘ब’ ‘अ’ पर भाले से आक्रमण करता है और ‘अ’ गदा से उस पर प्रहार करता है जिससे ‘ब’ की मृत्यु हो जाती है 

(3) “अ’ एक लड़का जिसकी फसल अक्सर चोरी चली जाती थी, ब को चोरी करता हुआ पकड़ता है तथा उस पर कई बार गदे से प्रहार करता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है।

(4) अनेक शस्त्रधारी व्यक्ति एक कोर्ट हाउस पर आक्रमण करते हैं तथा कोर्ट हाउस का एक निवासी एक हत्यारे को गोली मार देता है।

(5) अभियुक्त ने कई व्यक्तियों पर, जो मध्य रात्रि को उसके घर में प्रवेश कर रहे थे अपना शत्रु समझ कर गोली चला दिया जबकि वे पुलिस सिपाही थे जो उसे पकड़ने आये थे और उनमें से एक की मृत्यु हो गयी मृतक तथा उसके व्यक्तियों ने अभियुक्त की सम्पत्ति पर अनधिकृत रूप से प्रवेश किया था और इस बात की आशंका थी कि अभियुक्त की सम्पत्ति की या तो चोरी हो जायेगी या उसे नष्ट कर दिया जायेगा।

 

जब अभियुक्त एवं उसके व्यक्तियों ने मृतक तथा उसके व्यक्तियों के प्रवेश पर आपत्ति उठाया तो मृतक एवं उसके ने आदमियों ने, अभियुक्त एवं उसके आदमियों की पिटाई की। बाद में अभियुक्त एवं उसके व्यक्तियों ने मृतक की इतनी पिटाई की कि उसकी मृत्यु हो गयी। उच्चतम न्यायालय का यह मत था कि विद्यमान परिस्थितियों में अभियुक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार था और वह मृत्यु कारित करने की सीमा तक विस्तारित था। ऐसी परिस्थिति में भारतीय दण्ड संहिता की धारा (IPC) (IPC Section 99) में उल्लिखित अपवाद लागू नहीं होगा .

 

म० प्र० राज्य बनाम मिश्री लाल वाले मामले में अभियोजन पक्ष और अभियुक्त पक्ष के बीच गोली चली थी। अभियुक्तों में से एक के पिता को पांच क्षतियाँ लगीं जो उसके जीवन के लिये खतरनाक थीं। उसके पुत्र ने पिता की जान के खतरे की आशंका से उसी समय आत्मरक्षा में गोली चलाया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि उन परिस्थितियों में अभियुक्त के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त ने व्यक्तिगत प्रतिरक्षा में के अधिकार का अतिक्रमण किया है।


कारित अत्यधिक अपहानि-निम्नलिखित मामलों में वैयक्तिक प्रतिरक्षा की सीमा पार की गयी थी


(1) जहाँ एक चोर को रात्रि में उस समय जबकि उसका आधा शरीर सिर सहित मकान के अन्दर था और आधा बाहर, पकड़ा गया और उसकी गर्दन पर पाँच बार लाठी से प्रहार किया गया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। अभियुक्त को सदोष मानव-वध जो हत्या के तुल्य नहीं था, के लिये दण्डित किया गया, क्योंकि उसने आवश्यकता से अधिक अपहानि कारित किया था 

(2) जहाँ अभियुक्त अपनी तथा मृतक की संयुक्त जमीन से एक रास्ते का निर्माण करना चाहता था किन्तु मृतक ने ऐसा करने से मना कर दिया जिससे दोनों के बीच वाद-विवाद हुआ और मृतक ने अभियुक्त के हाथ से कुदाली छीन कर फेंक दिया किन्तु कुदाली खोज कर अभियुक्त ने मृतक पर प्रचण्ड प्रहार किया जिससे कुदाली मृतक की खोपड़ी से होती हुई उसके मस्तिष्क में घुस गयी और 18 दिन बाद उसकी मृत्यु हो गयी। यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त ने आवश्यकता से अधिक क्षति कारित किया था 

(3) जहाँ एक प्रधान कान्स्टेबुल ने कंजरो (Gypsies) की पार्टी में से एक को अवैध रूप से कैद कर लिया तथा अन्य सभी को बाहर कर दिया गया, इस पर चार पाँच लोग लाठियों एवं पत्थरों से सुसज्जित होकर प्रधान कान्स्टेबिल की ओर उसे धमकाने के लिये बढ़े। इसी समय उन पर गोली चलायी गयी जिससे एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। ऐसा प्रतीत होता था कि कैदी कंजर को रिहा कर दिया गया होता तो भीड़ वापस लौट जाती। यह निर्णय दिया गया कि अत्यधिक अपहानि कारित की गई थी

 


(4) जहाँ एक व्यक्ति ने एक चोर को रात्रि में अपने घर में पकड़ा तथा जानबूझ कर उसे मार डाला ताकि वह भाग न सके। अभियुक्त के बचाव के तर्क को नकार दिया गया।

(5) जहाँ एक भारी एवं यन्त्र की तरह चलने वाले जीप जैसे यान का प्रयोग वैयक्तिक प्रतिरक्षा के लिये किया गया था, यह निर्णय दिया गया कि अत्यधिक अपहानि कारित की गयी थी 

(6) एक बनपालक (Parker) एक लड़के को अपने मालिक की जमीन से लकड़ी चुराते हुये पकड़ता है तथा उसे अपने घोड़े की पूँछ से बाँध कर मारता है जिससे घोड़ा भयभीत होकर दौड़ने लगता है और बच्चे को जमीन पर घसीटता है। फलस्वरूप लड़के का कन्धा टूट जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। इसे हत्या का मामला माना गया |

 

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