माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम 1996 के मुख्य लक्षणों की विवेचना कीजिये

माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम 1996 के मुख्य लक्षणों की विवेचना कीजिये | Describe the salient features of Arbitration and Conciliation Act 1996.

माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम 1996 के प्रमुख लक्षण  (Salient features of Arbitration and Conciliation Act 1996)

1. विस्तृत विधायन (Comprehensive Legislation)

यह अधिनियम, एक विस्तृत अधिनियम है। इसके द्वारा माध्यस्थम् विनियमों को समेकित ( Consolidate) किया गया है तथा उन्हें संशोधित भी किया गया है। इस अधिनियम के पीछे मूल उद्देश्य यह है। कि अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रादेशिक विवादों को सुलझाने में माध्यस्थम् के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाये। यह अधिनियम अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इसमें कुल 86 धाराएं हैं जो चार भागों में विभक्त हैं।

  1. भाग-I सामान्य प्रावधानों से संबंधित है. न्यूयार्क तथा जिनेवा कनवेन्शन (New York & Geneva Comventions)
  2. भाग-II के अन्तर्गत विदेशी पंचाट (foreign award) के प्रवर्तन से संबंधित है, अधिनियम
  3. भाग-III में सुलह (Conciliation) संबधी प्रावधान हैं तथा
  4. भाग-IV में कतिपय पूरक प्रावधानों का उल्लेख है जिनके अन्तर्गत उच्च न्यायालय को यह शक्ति प्रदान की गई है। कि वे माध्यस्थम् से सम्बन्धित ऐसे नियम बना सकते हैं जो अधिनियम से असंगत न हों। उक्त चार भागों के अतिरिक्त अधिनियम में तीन अनुसूचियाँ भी संलग्न हैं।



2. स्पष्ट विधान (Explanatoury Legislation)

 

पुराने माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 में अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् सम्बन्धी कोई प्रावधान नहीं था। वह सिर्फ घरेलू माध्यस्थ तक ही सीमित था। इस विधि को अधिक स्पष्ट किया गया है इस अधिनियम के द्वारा माध्यस्थ न्यायाधिकरण (Arbitral Tibunal) की परिकल्पना की गई तथा सांविधिक मध्यस्थ (Statutory Arbitrator ) को न्यायाधिकार का दर्जा प्रदान किया गया है। इस अधिनियम के द्वारा विदेशी तथा अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थ के चुनाव सम्बन्धी विस्तृत प्रक्रिया को उल्लेखित किया गया है।

 

3. सुलह प्रावधान (Conciliation Procedure)

 

इस अधिनियम के द्वारा प्रथम बार सुलह की प्रक्रिया को मान्यता प्रदान की गई। इस अधिनियम के द्वारा सुलह की कार्यवाहियों को अन्य कार्यवाहियों में ग्राह्य योग्य बनाया गया है। जैसा कि इस अधिनियम के शीर्षक से स्पष्ट है, इसमें माध्यस्थम् के अलावा सुलह (Conciliation) को भी वाणिज्यिक विवादों के निपटारे के साधन के रूप में विधिक मान्यता प्रदान की गई है जिसे पूर्ववर्ती अधिनियम में विधिक मान्यता प्राप्त नहीं थी।




केवल इतना ही नहीं, अधिनियम में ‘सुलह’ (Conciliation) को वही स्थान प्राप्त है जो कि माध्यस्थम् (Arbitration) को अर्थात् सुलह द्वारा रजामंदी से दिये गए निर्णय की मान्यता वैसी ही होगी जैसी कि मध्यस्थों द्वारा दिये गये पंचाट (award) की तथा इसका न्यायालयीन डिक्री की भाँति प्रवर्तन किया जा सकेगा।

 

इसे अधिनियम के अधीन देशीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दोनों ही प्रकार के विवाद सुलह द्वारा निपटाये जा सकेंगे। ज्ञातव्य है कि सुलह तथा माध्यस्थम् में मुख्य अंतर यह है कि सुलहकार (Conciliator) विवादी पक्षकारों को अपने मतभेद या विवाद आपसी रजामंदी से निपटा लेने में केवल उत्प्रेरक एवं सहायक की भूमिका निभाता है।




4. न्यायालय की शक्ति को सीमित किया जाना (Limitation of Power of Court)

 

इस अधिनियम के द्वारा न्यायालय की शक्तियाँ को सीमित किया गया है। अधिनियिम में इस सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है कि माध्यस्थम् कार्यवाहियों पर न्यायिक अधिकरण हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस अधिनियम के अनुसार भाग एक के प्रावधानों के अधीन माध्यस्थ पंचाट (Arbitral Awards) अन्तिम होगा।

 

5. मध्यस्थता के लिये विस्तृत प्रक्रिया (Detailed Procedure for Aribitration)

 

अधिनियम के भाग 5 में मध्यस्थता सम्बन्धी विस्तृत प्रक्रिया को उल्लेखित किया गया है। इसके द्वारा प्रथम बार पक्षकारों के बीच समानता रखी गई है तथा पक्षकारों को समान एवं पूर्ण अवसर देने सम्बन्धी प्रावधान रखे गये है। माध्यस्थम अधिकरण को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के प्रावधानों को अपना सकें।




6. न्यायालय के अधिकारों का उल्लेख (Power of the Court)

 

इस अधिनियम ने न्यायालय के हस्तक्षेप की सीमा को पूर्णरूप से उल्लेखित किया है । अधिनियम में उल्लेखित किया गया है कि न्यायालय धारा 5 के अतिरिक्त अन्य प्रावधानों के तहत हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। यह अधिनियम कुछ विशिष्ट मामलों में ही न्यायालय के हस्तक्षेप की अनुमति देता है।

 

7. मध्यस्थ के अधिकारों में वृद्धि (Increase in Power of Arbitrator)

 

इस अधिनियम के प्रावधानों के द्वारा मध्यस्थ को विस्तृत शक्तियाँ दी गई है । वह अन्तरिम आदेश भी जारी कर सकता है। मध्यस्थ को किसी पक्षकार से उचित कार्यवाही के तहत प्रतिभूति लेने का भी अधिकार है।




৪. अपीलीय प्रावधान (Appellate Provisions)

 

इस अधिनियम में माध्यस्थम् पंचाट के विरुद्ध अपील का कोई प्रावधान नहीं है, अत: मध्यथ-मध्यस्थों द्वारा दिया गया पंचाट निर्णय पक्षकारों के लिए अंतिम और बंधनकारी होगा। तथापि अधिनियम की धारा 34 में वर्णित कतिपय आधारों पर व्यथित पक्षकार (aggrieved party) पंचाट को अपास्त करने हेतु न्यायालय में आवेदन कर सकता है। पूर्ववर्ती अधिनियम के पंचाट की संपुष्ट न्यायालय डिक्री द्वारा हुए बिना उसे प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता था। इस हेतु पक्षकारों को न्यायालय में आवेदन करना पड़ता था।




9. अन्तरिम आदेश (Interim Order)

 

सन् 1996 के माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम का एक प्रमुख लक्षण है कि इसमें मध्यस्थों या माध्यस्थम् अधिकरण को विवाद की विषय वस्तु से संबंधित अन्तरिम आदेश (interim order) पारित करने की शक्ति प्रदान की गई है, यदि इसके लिये पक्षकारों ने माँग की हो। पुरानी माध्यस्थम् विधि में अन्तरिम आदेश जारी करने संबरधी शक्ति का प्रावधान नहीं था यद्यपि मध्यस्थ या माध्यस्थम् अधिकरण अन्तरिम पंचाट (interim award) निर्देशित कर सकता था।




10. विदेशी पंचाट (Foreign Awards)

 

इस अधिनियम के अधीन न्यूया्क कनवेन्शन तथा जिनेवा कनवेन्शन के अन्तर्गत किये गये कुछ विदेशी पंचाटों (Foreign awards) को प्रवर्तनीय माना गया है। पूर्ववर्ती अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। भारत न्यूयार्क कनवेन्शन का सदस्य होने के कारण किसी विदेशी पंचाट को भारतीय न्यायालय द्वारा प्रवर्तित किया जा सकता है बशर्ते कि उसके विषय-वस्तु के संबंध में न्यायालय को अधिकारिता प्राप्त हो। परन्तु आवेदक द्वारा इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत किये जाने पर कि पंचाट में कोई कमी, त्रुटि या अक्षमता है, या उसे मध्यस्थों की नियुक्ति के बारे में पूर्व सूचना नहीं दी गई थी, विदेशी पंचाट का प्रवर्तन अस्वीकृत किया जा सकता है। विदेशी पंचाट के प्रवर्तन संबंधी अन्य प्रावधान घरेलू (विदेशी) पंचाट के प्रवर्तन के उपबंधों के समान ही हैं।




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